Wednesday, May 22, 2019

नितिन गडकरी की राह कितनी मुश्किल और क्या होगा विदर्भ की 10 सीटों पर: लोकसभा चुनाव 2019

2019 चुनाव में विदर्भ में क्या होगा, इसको जानने-समझने से पहले एक बात स्पष्ट है. वो बात यह है कि 2014 की तरह, इस बार विदर्भ के नतीजे शायद बहुत चौंकाने वाले नहीं हों.
2014 में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन ने सभी 10 सीटों पर जीत हासिल की थी. इस बार भी गठबंधन के उम्मीदवारों को कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन पर बढ़त दिख रही है. इसकी एक वजह तो यही है कि कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन यहाँ कमज़ोर है, दोनों दलों के गठबंधन में सबकुछ ठीक नहीं है और गुटबाज़ी का खामियाजा भी इसे भुगतना पड़ सकता है.
इस इलाके में लोकसभा चुनाव 11 अप्रैल से शुरू हो रहे हैं, ऐसे में पूर्वी महाराष्ट्र की इन 10 सीटों पर चुनावी चहल-पहल तेज़ी से बढ़ने लगी है.
एक समय विदर्भ को कांग्रेस का गढ़ भी माना जाता रहा था लेकिन 2014 में मोदी लहर पर सवार बीजेपी-शिवसेना ने कांग्रेस को एक भी सीट नहीं जीतने दी.
पिछले महीने इलाके में कई जगह घूमने-फिरने और आम लोगों से बातचीत के दौरान यह तो जाहिर होता रहा है कि समाज में मोदी सरकार को लेकर नाराजगी है और लोगों का मोहभंग भी हुआ है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व वाला विपक्ष बिना ज़ोर लगाए चुनाव जीतने की स्थिति में भी नहीं दिख रहा है.
नाम गोपनीय रखने के अनुरोध के साथ पश्चिम विदर्भ से दो बार कांग्रेस के विधायक रहे एक नेता ने बताया, "चुनाव जीतने की स्थिति तो है, लेकिन मोदी और बीजेपी से लोगों के मोहभंग को हम भुना नहीं पा रहे हैं."
वहीं, दूसरी ओर, बीजेपी-शिवसेना के लिए भी 2014 की कामयाबी को दोहराना आसान नहीं होगा.
किसान नेता विजय जावांधिया कहते हैं, किसान मोदी सरकार से नाराज हैं. लेकिन पुलवामा ने किसानों के मुद्दे को गायब सा कर दिया है. कोई लहर भी नहीं है. मेरे ख्याल से जाति का गणित और स्थानीय समीकरणों की चुनावी नतीजों में अहम भूमिका रहेगी.
विजय कहते हैं, "अगर दलित, जनजातीय समुदाय और मुसलमानों ने रणनीति के साथ एकजुट होकर वोट नहीं दिया तो कांग्रेस तो कहीं जमीन पर भी नहीं है, मेरे ख्याल से बीजेपी-शिवसेना को बढ़त हासिल है."
विदर्भ में दो चरणों चुनाव है- सात लोकसभा सीटों पर 11 अप्रैल को वोट डाले जाएंगे जबकि बाकी की तीन सीटों पर 18 अप्रैल को मतदान होगा.
बीजेपी इलाके की छह सीटों पर चुनाव लड़ रही है जबकि चार सीटों पर शिवसेना के उम्मीदवार हैं. वहीं दूसरी ओर कांग्रेस इलाके की सात सीटों पर चुनाव लड़ रही है, दो सीट पर एनसीपी के उम्मीदवार हैं और अमरावती की सीट निर्दलीय विधायक रवि राणा की पत्नी नवनीत को एनसीपी कोटे से दी गई है.
विदर्भ एक समय में कांग्रेस का गढ़ था, लेकिन पार्टी के कमजोर ढांचे, क्षेत्रीय नेताओं के अभाव और गुटबाज़ी के चलते ही बीजेपी-शिवसेना ने पूरे इलाके में तेज़ी से अपनी स्थिति मजबूत कर ली.
पटोले कांग्रेस के किसान सेल के अध्यक्ष भी हैं लेकिन उनको नागपुर से टिकट दिए जाने पर स्थानीय यूनिट में नाराजगी भी देखने को मिली है. दूसरी ओर बीजेपी नितिन गडकरी की जीत को लेकर निश्चिंत है. लेकिन कांग्रेस की उम्मीद की बड़ी वजह ये है कि कांग्रेस नागपुर में कई दिग्गजों को चुनाव हरा चुकी है.
स्थानीय जातिगत समीकरणों को देखने पर यह जाहिर होता है कि इस सीट पर नितिन गडकरी के लिए जीत हासिल करना आसान नहीं रहने वाला है. नागपुर में 21 लाख मतदाता हैं, जिनमें 12 लाख दलित, मुस्लिम और कुनबी हैं. इसके अलावा बुनकर का काम करने वाले हलबा-कोष्टी समुदाय भी डेढ़ लाख के लगभग हैं. ये सब लोग बीजेपी से नाराज बताए जाते हैं और इनका साथ कांग्रेस को मिल सकता है.
कुनबी समुदाय से ही आने वाले पटोल ने कांग्रेस के सभी धड़ों के साथ नागपुर में रैली से अपनी शुरुआत की है, माना जा रहा है कि वो नितिन गडकरी को कड़ी चुनौती देंगे. हालांकि गडकरी विकास की पिच पर मौजूद हैं, ख़ासकर मार्च में उन्होंने मेट्रो रेल के एक कॉरिडोर को ऑपरेशनल बना दिया है. वे निजी तौर पर भी लोकप्रिय हैं.
रामटेक सीट को लेकर भी कांग्रेस असमंजस में रही- पार्टी कार्यकर्ता चाहते थे कि यहां पार्टी के महासचिव मुकुल वासनिक चुनाव लड़ें ( पिछले चुनाव में वे शिवसेना के क्रुपाल तुमाने से हार गए थे) लेकिन वासनिक जानते थे कि वह शायद फेवरिट नहीं हैं. रामटेक एक सुरक्षित सीट है, लेकिन यहां के दलित आंबेडकराइट और हिंदू दलितों में बंटे हुए हैं, इन दोनों के बीच ओबीसी फैक्टर संतुलन साधता है.
रामटेक के कांग्रेसी नेता (ख़ासकर पार्टी के मज़बूत नेता और विधायक सुनील केदार) का समर्थन वासनिक को नहीं मिला, ये लोग कांग्रेस के जनजातीय समुदाय के अध्यक्ष नितिन राउत को चुनाव लड़ाना चाहते थे. लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने आखिरी मौके पर यहां से किशोर गजभैइए को चुनाव मैदान में उतारा है. गजभैइए भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी हैं और बहुजन समाज पार्टी की टिकट पर नागपुर (उत्तर) से 2014 में विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं.
पश्चिम विदर्भ की अमरावती, अकोला, यवतमाल-वाशिम और बुलडाना में भी दिलचस्प टक्कर देखने को मिल सकती है. हालांकि इनमें से अकोला में तिकोना मुकाबला देखने को मिल सकता है.
बीजेपी ने अपने मौजूदा सांसद संजय धोत्रे को चुनाव मैदान में उतारा है. कांग्रेस ने भी यहां से अपने पुराने उम्मीदवार हिदायत पटेल को बनाए रखा है. दलित नेता एवं पूर्व सांसद प्रकाश आंबेडकर अपनी बहुजन वंचित आघाड़ी पार्टी से यहां चुनाव मैदान में उतर सकते हैं या फिर अपनी पत्नी को उतार सकते हैं. ऐसे में यहां मुक़ाबला तिकोना हो जाएगा.
इलाके में कोई बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं दिखता है, लगता है कि स्थानीय मुद्दे ही प्रभावी होंगे. ऐसे में आख़िरी समय में फ़ैसला लेने वाले फ्लोटिंग मतदाता और निचली जातियों के मतदाताओं का वोट यहां निर्णायक होने वाला है.
विदर्भ भी पूर्व और पश्चिम में बंटा हुआ है. ज़रूरी नहीं है कि पूर्व में धान की खेती करने वाले किसान पांच जिलों में उसी तरह मतदान करें जिस तरह से पश्चिम में कपास उगाने वाले किसान करेंगे.
प्रचंड सूखा, आर्थिक तंगी, सरकार के वादों का पूरा नहीं होना और बढ़ती बेरोजगारी- ये वो मुद्दे हैं जिसके चपेट में ग्रामीण विदर्भ के लोग फंसे हुए हैं. लेकिन ऐसा लग नहीं रहा है कि जब वे लोग मतदान करने निकलेंगे तो वे बड़ा बदलाव लाने के लिए वोट देंगे. नौ मौजूदा सांसद चुनाव मैदान में होंगे- तीन शिवसेना के और छह बीजेपी के उम्मीदवार.
2014 में बीजेपी की टिकट पर चुनाव जीतन वाले नाना पटोले कांग्रेस के खेमे में लौट चुके हैं और नागपुर में वे बीजेपी के दिग्गज नेता और केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को चुनौती दे रहे हैं.

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