आर के मिश्रा ने सुबह साढ़े आठ बजे नाश्ते के समय नवाज़ शरीफ़ से मुलाकात कर उन्हें वो टेप सुनवाया और उसकी ट्रांस - स्क्रिप्ट उनके हवाले की.
मिश्रा और काटजू उसी शाम ये काम पूरा कर दिल्ली वापस आ गए. इस यात्रा को इतना गुप्त रखा गया कि कम से कम उस समय इसकी कहीं चर्चा नहीं
हुई.
सिर्फ़ कोलकाता से छपने वाले अख़बार 'टेलिग्राफ़' ने अपने 4 जुलाई 1999 के अंक में प्रणय शर्मा की एक रिपोर्ट छापी जिसका शीर्षक था, 'डेल्ही हिट्स शरीफ़ विद आर्मी टेप टॉक.'
इस रिपोर्ट में बताया गया कि भारत ने इस टेप को नवाज़ शरीफ़ को सुनाने के लिए विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव विवेक काटजू को इस्लामाबाद भेजा
था.
रॉ के पूर्व अतिरिक्त सचिव बी रमण ने 22 जून 2007 को आउटलुक पत्रिका में लिखे एक लेख 'रिलीज़ ऑफ़ कारगिल टेप मास्टरपीस ऑर ब्लंडर ?'
में साफ़ कहा कि नवाज़ शरीफ़ को टेप सुनाने वालों को साफ़ निर्देश थे कि वो
उस टेप को उन्हें सुना कर वापस ले आएं. उन्हें उनके हवाले न करें.
मिश्रा ने बाद में इस बात का खंडन किया कि उन्होंने ये काम किया था. विवेक काटजू ने भी कभी सार्वजनिक रूप से इसकी पुष्टि नहीं की.
इस
सबके पीछे भारतीय ख़ेमे जिसमें रॉ के सचिव अरविंद दवे, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा और जसवंत सिंह शामिल थे, की सोच ये थी कि इन सबूतों से दो चार होने और इस आशंका के बाद कि भारत के पास इस तरह के और टेप हो सकते हैं, कारगिल पर पाकिस्तानी नेतृत्व और दबाव में आएगा.
इन टेपों के नवाज़ शरीफ़ द्वारा सुन लिए जाने के करीब एक हफ़्ते बाद 11 जून, 1999 को विदेश मंत्री सरताज अज़ीज़ की भारत यात्रा से कुछ पहले भारत
ने एक संवाददाता सम्मेलन कर इन टेपों को सार्वजनिक कर दिया.
इन टेपों की सैकड़ों कापियाँ बनवाई गई और दिल्ली स्थित हर विदेशी दूतावास को भेजी गईं.
भारतीय ख़ुफ़िया समुदाय के लोग अभी भी ये बताने में कतराते हैं कि उन्होंने इस काम को कैसे अंजाम दिया?
पाकिस्तानियों
का मानना है कि इस काम में या तो सीआईए या फिर मोसाद ने भारत की मदद की.
जिन्होंने इन टेपों को सुना है उनका मानना है कि इस्लामाबाद की तरफ़ की आवाज़ ज्यादा साफ़ थी, इसलिए संभवत: इसका स्रोत इस्लामाबाद रहा होगा.
कारगिल पर बहुचर्चित किताब 'फ़्रॉम कारगिल टू द कू 'लिखने वाली पाकिस्तानी पत्रकार नसीम ज़ेहरा अपनी किताब में लिखती हैं,' अपने चीफ़ ऑफ़
जनरल स्टॉफ़ से इतनी संवेदनशील बातचीत खुले फ़ोन पर करके जनरल मुशर्रफ़ ने
ये सबूत दिया कि वो किस हद तक लापरवाह हो सकते हैं. इस बातचीत ने सार्वजनिक
रूप से ये सिद्ध कर दिया कि कारगिल ऑप्रेशन में पाकिस्तान के चोटी के
नेतृत्व का किस हद तक हाथ है.'
दिलचस्प बात ये है कि अपनी बेबाक आत्मकथा 'इन द लाइन ऑफ़ फ़ायर' में परवेज़ मुशर्रफ़ इस घटना से साफ़ कन्नी
काट गए और इस बातचीत का कोई ज़िक्र ही नहीं किया हाँलाकि बाद में पाकिस्तान
के राष्ट्रपति के रूप में भारतीय पत्रकार एम जे अकबर को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने इन टेपों की असलियत को स्वीकार किया.
इन टेपों को नवाज़ शरीफ़ के सुनवाए जाने के करीब 1 सप्ताह बाद पाकिस्तान
के विदेश मंत्री सरताज अज़ीज़ दिल्ली पहुंचे तो पाकिस्तानी उच्चायोग के प्रेस काउंसलर बहुत परेशान मुद्रा में दिल्ली हवाई अड्डे के वीआई पी लाउंज
में उनका इंतज़ार कर रहे थे.
उनके हाथ में कम से कम छह भारतीय समाचार पत्र थे जिसमें मुशर्रफ़ अज़ीज बातचीत को हेडलाइन में छापा गया था. जसवंत सिंह ने अज़ीज़ से बहुत ठंडे ढंग
से हाथ मिलाया.
इन टेपों से दुनिया और ख़ास तौर से भारत में ये
धारणा मज़बूत हुई कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का कारगिल संकट में सीधा
हाथ नहीं है और उनको सेना ने कारगिल अभियान की जानकारी से महरूम रखा है.
भारत के ख़ुफ़िया हल्कों में कुछ जगह इन टेपों को सार्वजनिक करने की आलोचना भी हुई.
रॉ
के अतिरिक्त सचिव रहे और उस पर चर्चित किताब 'इंडियाज़ एक्सटर्नल
इंटेलिजेंस - सीक्रेटेल ऑफ़ रिसर्च एंड अनालिसिस विंग' लिखने वाले मेजर
जनरल वी के सिंह ने बीबीसी को बताया, 'ये पता नहीं है कि इन टेपों को सार्वजनिक कर भारत को अमरीका और संयुक्त राष्ट्र से कितने 'ब्राउनी
प्वाएंटस' मिले, लेकिन ये ज़रूर है कि पाकिस्तान को इसके बाद इस्लामाबाद और
बीजिंग के उस ख़ास उपग्रह लिंक का पता चल गया, जिस को रॉ ने 'इंटरसेप्ट'
किया था. इसको उसने तुरंत बंद कर दिया.. इसका अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है कि अगर वो 'लिंक' जारी रहता, तो हमें उसके बाद भी कितनी और महत्वपूर्ण
जानकारियाँ मिली होतीं.मेजर जनरल वी के सिंह आगे कहते हैं, 'शायद रॉ या प्रधानमंत्री कार्यालय
के उस समय के लोगों ने 1974 में प्रकाशित एफ़ डब्लू विंटरबॉथम की किताब 'अल्ट्रा सीक्रेट' नहीं पढ़ी थी जिसमें पहली बार दूसरे विश्व युद्ध के एक
महत्वपूर्ण ख़ुफ़िया स्रोत का ज़िक्र किया गया था. महायुद्ध की बहुत शुरुआत
में ब्रिटेन ने जर्मनी के इंनसाइफ़रिंग डिवाइस 'एनिगमा' के कोड को तोड़
लिया था. इस जानकारी को अंत तक छुपा कर रखा गया और जर्मनों ने पूरे युद्ध के दौरान 'एनिगमा' का इस्तेमाल जारी रखा जिससे ब्रिटिश ख़ुफ़िया विभाग तक
बेशकीमती जानकारियाँ पहुंचती रहीं. एक बार तो ब्रिटेन को यहां तक पता चल
गया कि अगली सुबह 'लोफ़्तवाफ़े' यानि जर्मन वायु सेना कॉवेंट्री पर बमबारी करने वाली है. उस शहर के लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया कर उनकी जान
बचाई जा सकती थी. लेकिन चर्चिल ने ऐसा न करने का फ़ैसला लिया, क्योंकि इससे जर्मनी को शक हो जाता और वो 'एनिगमा' का इस्तेमाल करना बंद कर देते.'
लेकिन दूसरी तरफ़ रॉ के पूर्व अतिरिक्त सचिव बी रमन का मानना था कि इन
टेपों को सार्वजनिक करना मनोवैज्ञानिक युद्ध का सबसे बड़ा नमूना था. इसने हमारी सेना के उस दावे को पुख़्ता किया कि घुसपैठिए पाकिस्तानी सेना के
'रेगुलर' सिपाही हैं न कि जिहादी पृथकतावादी जैसा कि मुशर्रफ़ बार बार कह
रहे थे.
इस जानकारी से अमरीका को इस फ़ैसले पर पहुंचने में भी आसानी हुई कि पाकिस्तान ने कश्मीर में नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया है और
उन्हें हर हालत में भारत की भूमि से हटना चाहिए.
इन टेपों ने
पाकिस्तानी लोगों के बीच पाकिस्तानी सेना और मुशर्रफ़ की विश्वस्नीयता भी संदेह के घेरे में ला दी. आज भी पाकिस्तान में बहुत से लोग हैं जो कारगिल
पर मुशर्रफ़ की सुनाई कहानी को सिरे से ख़ारिज करते हैं.
इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इन टेपों को सार्वजनिक करने का वजह से ही दुनिया का
पाकिस्तान पर दबाव बढ़ा और उसे कारगिल से अपने सैनिक हटाने पड़े.
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